गिरकर उठा हूं , अब उठकर चलना जानता हूं,
पर्वत सी उद्विग्नता से निकलना जानता हूं ।
मैं नहीं दरख़्त वो, जो विमुख हवा के झोंके से
कैसे सम्हलना है आंधियों से,हरवक्त जानता हूँ ।
निशदिन फैला रहा चंदन सी महक चंहुओर,
बाँस के कारण उठी दावानल जानता हूँ ।
चल पड़ा हूं राहगीर बनकर पूण्य की राह पर
पाप के कारण घरों के, मैं हश्र जानता हूँ ।
जिनमें नहीं आस्था ईश्वर के प्रति कोई
नेस्तनाबूद हो गए ऐसे नश्वर जानता हूँ ।
पुष्पों को बाँटने से भी हाथ सुगन्धित होते है
कंई महकते ऐसे, मैं हाथों को जानता हूँ ।
लांग जाती है पहाड़ चींटी भी हौसला पाकर
पुनर्बलन की मैं वह ताक़त जानता हूँ ।
गिरकर उठा हूं , अब उठकर चलना जानता हूं,
पर्वत सी उद्विग्नता से निकलना जानता हूं ।
✍️योगेंद्र सिंह राजावत
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